आज़ादी की लड़ाई के गुमनाम नायक - बख्तर साय एवं मुण्डाल सिंह || Bakhtar Say and Mundal Singh - Unsung heroes of the freedom fighter.

 
Bakhtar Say and Mundal Singh

आज़ादी की लड़ाई के गुमनाम नायक - बख्तर साय एवं मुण्डाल सिंह 

          महान स्वतंत्रता सेनानी मंडल सिंह का जन्म झारखण्ड के गुमला ज़िले में हुआ था और सेनानी बख्तर साय का जन्म इसी जनपद के नवागढ़ परगना (वर्तमान में रायडीह प्रखण्ड) में हुआ था। 

        बख्तर साय और मुंडल सिंह दोनों रौतिया परिवार में जन्मे थे।  बख्तर साय वासुदेव कोना के जमींदार थे और मुंडल सिंह पहार पनरी के पगनेट थे।  बख्तर साय ने सन 1812 में मुंडल सिंह के साथ मिलकर ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी, दोनों ने मिलकर अंग्रेजो को पराजय किया था।  

         इस पराजय के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी, अर्थात ब्रिटिश सरकार ने कूटनीतिक चाल चलते हुए छोटानागपुर के राजा इंद्रनाथ शाहदेव से संधि कर लिया।  इस संधि के अंतर्गत अंग्रेज सरकार महाराजा के माध्यम से नवागढ़ की सामान्य निर्धन जनता से 12000 रुपए वार्षिक कर वसूलने लगी।  यह कर वसूलने के लिए अंग्रेज सरकार जनता पर अनेक प्रकार के अत्याचार करती थी।  इससे इस  क्षेत्र के जमींदार विचलित हो उठे।  


        ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ इस संधि के तहत महाराजा इंद्रनाथ शाहदेव ने हीराराम को कर वसूली के लिए नवागढ़ भेजा।  कर अत्यधिक होने के कारण बख्तर साय ने न केवल नवागढ़ के किसानो की ओर से ईस्ट इंडिया कंपनी को कर देने से मना कर दिया, अपितु अंग्रेज सरकार के अत्याचार से अत्यधिक आक्रोशित होकर हीराराम का सिर काट दिया और उसे थाली में सजाकर महाराजा इंद्रनाथ शाहदेव को भिजवा दया।  

        महाराजा इंद्रनाथ शाहदेव बख्तर साय की इस कृत्य से क्रोधित हो उठे और उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी को इस बात की जानकारी दी।  परिणामस्वरूप 11 फरबरी 1812 को रामगढ़ के मजिस्ट्रेट ने लेफ्टिनेंट डोनेल के नेतृत्व में हज़ारीबाग़ की एक सैन्य टुकड़ी को नवागढ़ के जमींदार बख्तर साय को पकड़ने के लिए भेजा। 

        इसी बीच रामगढ़ की बटालियन के कमांडेंट आर० मार्ट ने छोटा नागपुर में बख्तर साय को पकड़ने के लिए बरवे क्षेत्र, जशपुर और सरगुजा के राजा को एक पत्र लिखा।  जशपुर राजा के साथ आर० मार्ट का अच्छा संबंध था।  इसका लाभ उठाते हुए लेफ्टिनेंट डोनेल ने सहस्त्रों सैनिकों के साथ मिलकर नवागढ़ के घेर लिया।  

        इस घटनाक्रम की जानकारी पहाड़ पनरी के जमींदार मुंडल सिंह को हुई तो वह बख्तर साय को सहयोग देने के लिए नवागढ़ पहुँच गए।  दोनों ने मिलकर अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी।  उस समय नवागढ़ के आस-पास घना जंगल था और ऊँचे-ऊँचे पहाड़ थे।  बख्तर साय एवं मुंडल सिंह के लिए यह स्थिति व क्षेत्र आदर्श थे और वे इससे अवगत भी थे; जबकि अंग्रेज़ को वहाँ की भौगोलिक स्थिति के बारे में कुछ अता-पता नहीं था।  इस कारण उन्हें मुंडल और बख्तर तक पहुँचने में कठिनाई  होने लगी।
        अंग्रेजों ने एक विशेष रणनीति के साथ नवागढ़ को चारों ओर से घिर लिया।  बख्तर और मुंडल सिंह एक गुफा में घुस गए।  यह लड़ाई दो दिनों तक चलती रही।  बख्तर साय के सेना में अधिकांश सैनिक किसान ही थे, फिर भी उन्होंने इस आक्रमण को विफल करते हुए बासुदेव कोना की पहाड़ियों पर अपना ठिकाना बनाया और छापामारा युद्धनीति से उस पहाड़ी के निचे ब्रिटिश सेना के घेराबंदी कर आक्रमण करते रहे। अंग्रेज को जब इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने गुफा तक जाने वाली नदी की धारा को बंद कर दिया, ताकि बख्तर, मुंडल और उनके सैनिक पानी न पी  सकें। ब्रिटिश सेना द्वारा अपनाई गई इस कपटपूर्ण रणनीति के कारण बख्तर साय और मुंडल सिंह को जशपुर शासक रंजीत सिंह के यहाँ शरण लेने को बाध्य होना पड़ा।  वहाँ से एक दूसरे स्थान पर निकलते के दौरान 23 मार्च, 1812 को दोनों पकड़े गए। 4 अप्रैल 1812 को कोलकाता के फोर्ट विलियम नामक स्थान पर दोनों विभूतियों को फाँसी दे दी गई।  

        इस प्रकार, जनजातीय समाज के दो महान वीर योद्धाओं के संघर्ष का पटाक्षेप हुआ। आज भी जनजातीय समाज बख्तर साय और मुंडल सिंह के बलिदान को सम्मानपूर्वक याद करता है।